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कविता

सूरज से भी नहीं छँटेगा

माधव कौशिक


सूरज से भी नहीं
छँटेगा
अंधे युग का अंधियारा।

मानचित्र को रोंद
रही हैं
राजनीति की चालें
सेनानी को आहत
करती
युद्धभूमि में ढालें
जाने कब से मूक
पड़ा है
मीरा का हर इकतारा।

संबंधों का ताना-बाना
उलझ गया है जबसे
सड़कों पर नाराज खड़ा है
सन्नाटा भी तब से
खुली हथेली पर
रखा है
एक दहकता अंगारा।

कब तक कोई
मजबूरी में
सीये आँचल झीना
संदर्भों से कटकर
आखिर
जीना भी क्या जीना
बेघर-बार हुआ
जन्मों से
भटके मन का बंजारा।

 


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